Thursday 15 December 2011

khel khilauno ke din

जीवन में एसा समय आ गया है की बार बार पीछे लौटके देखना अच्छा लगता है.बहुत बरस बित जाने भी पर भी वो सब भूलता नही.जब मै बुआ के घर अकेले ही खेलती थी. उस बड़े से घर की निश्त्ब्धता आज भी मेरे अन्दर धनीभुत है.तब दुर्गाजी का मेला लगता था, जन्हा खेल खिलौने बिकने आते, मुझे राम ,कृष्ण के मूर्ति वाले खिलौने प्रिय थे.
मै बीएस दुकान में वे पसंद के खिलौने देखती और घर जाकर बाजी की तिजोरी पर रखे सिक्के मुठ्ठियों में भरकर जेब में डालती, और सरे मनपसंद खिलौने ले अति. यह मेले तक चलता, न तिजोरी पर कटोरे में रखे सिक्के कम होते, न बुआ मुझे टोकती. मुझे तब हिसाब तो आता नही था,जरूरत से कंही ज्यादा पैसे मैंने दिए होंगे.
वो सरे खिलौने मै ममता के साथ खेलती, हम दोनों घंटों कभी उसके, कभी हमारे घर उन खिलौनों में खोये रहते, हमने बहुत बड़ा डाला ही खिलौने रखने बना रखा था ,जिसे एक रस्सी से खींचकर एक दुसरे के घर लर जाते, गाँव के घर तब बड़े कहलाते थे,क्योंकि वो बड़े आंगन व् दालान वाले होते थे.
बाद में जब बुआ का घर छुट गया, मेरे खिलौने बुआ ने रो रोके मेरे साथ भेजे थे, वो मेरे लिए बहुत रोटी थी, क्योंकि उनके बेटे व् पति के गुजरने पर मै वंहा गयी थी, और जब भी एक हादसे से उन्क्के ynha